Thursday, September 26, 2013

Bharat Mata ro Rahi hai

भारत माता रो रही हैं
( मैने कविता का शिर्षक रेणु जी के कालजयी उपन्यास मैला आंचल के एक पवित्र चरित्र बावनदास के उस अभिव्यक्ति से लिया है जहां वह देखते है कि आजादी के बाद भी कुछ नही बदला - जो लोग कल तक अंग्रेजो के साथ थे आज वही लोग चोला बदलकर इस समाज के प्रभावी लोग बन गये है। और बावनदास को लगता है कि अब भी भारतमाता रो रही हैं। )

भारत माता रो रहीं थीं
जार- जार वह हो रही थीं,
सदियों तक बेडी पडी रही,
उम्मीद लिये वह खडी रही
कभी तो वो दिन आयेंगे,
शिवा प्रताप के सोए वशज्।
नींदों से ज़ग जायेंगे
कभी भगत तो कभी आज़ाद
कभी बिस्मिल तो कभी सुभाष
देकर बलिदान अनेकों लाल
माता के सपने सच किये
सन सैंतलिस का वह साल

सदियों की बेडी टूट गयी
आशा की किरणें फ़ूट गयीं
नया सोच था नया किनारा
उम्मीद नयी थी नया सहारा
नयी राह थी, नये थे सपने
प्रजा भी अपनी शासक भी अपने
ये कैसा था अपनापन
ये कैसा था भाइचारा
अपनों ने अपने को बाटां
माता के आंचल को काटा
भारत माता तब भी रो रही थी
तार –तार वह हो रही थी।
समय का पहिया घूम गया
पैंसठ सालों के चक्कर मे
अब इण्डिया शाइन करती है
पाश्चात् सन्स्क्रिति के टक्कर मे
नाना – नानी दादा- दादी ये
रिश्ते पीछे छूट गये
हम दो , हमारे दो बस
परिवार यहां तक टूट गये।
सब कुछ बिकता आज यहां पर
ग्लोबलाइजेशन के मेलों में
गरीबी , भुखमरी भ्रष्टाचार
ये सब तो बस खेल यहां पर
असली मुद्दे ढूढ रहे हम
क्रिकेट जैसे खेलों में

खेत बदलकर फ़्लैट बन गये
ज़गल का तो पता नहीं
नदियां सूखके नाले बन गयीं
सहमें से खडे है बचे पहाड
शायद इसी को वे कहते है
हो रहा भारत निर्माण

मदिर मस्जिद भाग्य को रोते
बिना वजह के दगे होते
नेता तो रहते महलों में
रामलला तम्बू में सोते

कभी टू जी कभी कामन्वेल्थ
कभी कोयला कभी चारा
नित नये घोटाले फ़ुटते है
देखते हम बन बेचारा

कलयुग से कैसा यह नाता
सन्त बेचते बिस्किट व आटा
डरी सहमी सी घूमती है,
बेटियां अपने ही देश में
ना जाने कब कौन दरिन्दा
मिल जाए किस भेष में
भारतमाता रो रहीं हैं
दुख मे पडकर ये सोच रही हैं
यवनों से अंग्रेजों तक देखा,
नहीं पडी चिन्ता की रेखा
अब यह कैसा समय है आया
अपने ही बनके गिध्द व कौए
नोंच रहे माता की काया।

माता हमसे पूछ रही हैं
मेरे बच्चों कब जागोगे,

मुझे व्यथा से कब तारोगे

माता हमसे पूछ रही हैं 
माता अब भी रो रहीं हैं